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रविवार, 7 अगस्त 2011

संस्मरण: इन्द्रा प्रताप शर्मा

रिटायर्ड होने के बाद मैंने दमोह के ओजस्विनी संस्थान में प्रिंसिपल का पद सम्हाला तो घर की समस्या सामने आई| सागर स्थित घर को मैं छोड़ना नहीं चाहती थी इसलिये मैंने प्रतिदिन ट्रेन से आने जाने की सोची| ट्रेन के समय कुछ ऐसे थे जो मुझे सूट कर गए| रेलवे स्टेशन घर से एक किलोमीटर दूर था| ८:२० ट्रेन का समय ; ८ बजे घर से निकलती ट्रेन पकड़ती १०बजे दमोह पहुँच जाती फिर ५ : २० की ट्रेन पकड़ती और ७:३० तक घर पहुँच जाती|
इस प्रतिदिन की यात्रा ने मेरी झोली में अनुभवों का खजाना भर दिया| उनमें से किसी ने दिल दुखाया तो किसी ने मानवीय उद्दात्त भावों से भर दिया तो कभी सोचने के लिए मजबूर कर दिया|
आज जो घटना मैं आपको सुनाने जा रही हूँ वह एक ऐसी वृद्ध महिला की है जिसके आगे पीछे कोई नहीं था| मैं उसे अकसर एक टोकरी लिए देखती जिसमें कुछ धनिए की गड्डियाँ रखी होतीं| उसकी दुबली पतली काया पर बदरंग गहरी नीली धोती और हाथ में मटमैली सी टोकरी और उसमें सजी हरी धनिए की कुछ पत्तियाँ; मुझे ऐसा लगता मानो मानव जनसमूह में एक छोटा सा द्वीप अपने नवजात पौधों के साथ इधर उधर तैर रहा हो| मन में कौतुहल होता आखिर यह क्या है
एक दिन वह मेरे ही कम्पार्टमेंट में चढ़ी और मेरे पास आकार बैठ गई| पैसेंजर ट्रेन में भीड़ कुछ अधिक ही होती है फिर भी उसे नज़दीक बुलाकर उससे बातें शुरू कीं|| पहले कुछ इधर उधर की फिर उससे पूछ ही लिया कि तुम रोज़ टोकरी में धनिया ले कर कहाँ जाती हो और क्यों जाती हो? उसने कहा,” मैं यह धनिया सागर से खरीद कर दमोह ले जाती हूँ| बिक जाता है तो शाम की ट्रेन से वापिस आ जाती हूँ| इस ट्रेन में मुझे कोई पकड़ता भी नहीं है|”
मैंने उससे कहा, “इतना सा धनिया तो तुम सागर में भी बेच सकती हो, इतनी दूर दूसरे शहर में क्यों आती हो और बेवजह कष्ट क्यों उठाती हो; अगर बेचना ही है तो कुछ और अधिक सब्जियाँ लाया करो जिससे तुम्हे कुछ ओर अधिक मुनाफ़ा हो|” उसने कुछ क्षण मेरी ओर ध्यान से देखा फिर बोली, “मेरी सामान खरीदने की लग्गत ( सामान खरीदने के लिए धन ) इतनी ही है| इसको बेच कर मुझे एक समय की रोटी मिल जाती है जो मैं दमोह में दोपहर को खा लेती हूँ और इतने पैसे भी बच जाते हैं जिनसे मैं अगले दिन के लिए धनिया भी खरीद लेती हूँ| मेरा रोज़ का यही क्रम है| और फिर रुक कर कुछ सोचते हुए उदास मन से बोली बाई दिन भी तो काटना होता है इस तरह आने जाने से मेरा दिन भी कट जाता है| ट्रेन में अकेलापन नहीं लगता |मुक्ते लोगों की मुक्ति बातें (बहुत से लोगों की बहुत सी बातें)| दिल बहल जाता है; लौटकर आती हूँ तो स्टेशन पर पानी पीती हूँ,कभी-कभी कुछ खाने को भी मिल जाता है |भीख माँगने वाले बच्चों को कभी – कभी एक दो रुपए दे देती हूँ तो वह भी मुझे कभी –कभी खाने को कुछ दे देते हैं | फिर कुछ देर चुप रहने के बाद बोली बाई न कोई अपना है न कोई अपना घर |
उसके इस तरह अभिमान से जीने के तरीके को देख कर मुझे एक ओर अच्छा भी लगा तो दूसरी ओर मैनें सोचा ---ऐसा कब तक | क्या कोई दिन ऐसा आएगा जब मुझे अखबार के किसी कोने में एक खबर छपी दिखाई देगी कि रात की ख़ामोशी में स्टेशन पर एक बूढ़ी औरत ने दम तोड़ दिया या फिर उस खबर पर मेरी कभी निगाह ही नहीं पड़ेगी|

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